बिहार : ऐतिहासिक सम्पदा

अतीत की घटनाओं  का प्रामाणिक विवरण ही इतिहास कहलाता है।भारत के प्रमुख राज्यों में बिहार कई कारणों से अग्रगण्य है। भारतीय इतिहास की निरंतरता लगभग पांच सहस्त्राब्दियों पर फैसला पर फैली है और इसका पूर्व ऐतिहासिक चरण लगभग 100000 ई० पू० तक जाता है। बिहार की राजनैतिक सीमाएं पिछले देशको में कई बार बदली है। बीसवीं शताब्दी के आरम्भ में बिहार एंव उड़ीसा , बंगाल प्रान्त के अंग थे 1992 में बिहार एवं उड़ीसा को बंगाल से अलग प्रान्त बनाया गया। सामान्यतः 1912 को बिहार प्रान्त के गठन का वर्ष मनाया जाता है ,बिहार और उड़ीसा संयुक्त रूप से एक  प्रान्त बने थे और 1936 में ही पृथक बिहार का गठन संभव हुआ।  1947 -48  में बिहार एवं उड़ीसा की सीमाओं का पुरनिरधरन हुआ 1956 में राज्यों के भाषाई आधार पे पुर्नगठन के क्रम में पुरुलिया एवं पूर्णिया जिलों के कुछ भाग पश्चिम बंगाल में शामिल किये गए। 15 नवम्बर 2000 को , बिहार का पुनः विभाजन हुआ छोटा नागपुर के पठारी भूखंड और इससे संबंद्ध जनजाति बाहुल्य आबादी वाले क्षेत्र को झारखण्ड नामक नए राज्य का रूप दिया गया।  बिहार की वर्तमान सीमाओ में घिरा क्षेत्र ऐतिहासिक सम्पदा के कारण बिशिष्ट महत्व रखता है। पूर्ण ऐतिहासिक कल से ही विकसित होने वाली सस्कृतियों का यह क्षेत्र महत्वपूर्ण केंद्र रहा।

लगभग 100,000 ई पूर्व में विकसित होने वाले आरंभिक पूर्व – प्रस्तर युगीन औजारों का अवशेष मुंगेर और नालंदा जिलों से प्राप्त हुए है। नव प्रस्तर युग के अवशेष शरण और वैशाली जिलों में मिले है।  इनमे छोटे आकार के पत्थर और कहीं कहीं हड्डि के भी बने अवजार शामिल है।  ताम्र – प्रस्तर युग के अवशेष सारण , वैशाली , गया और पटना जिले से प्राप्त हुए है।  जिस निरंतरता के साथ यह औजार प्राप्त हुवे है इससे अनुमान होता है की पूर्व ऐतिहासिक युग में भी बिहार मानव सभ्यता के विकास के महत्वपूर्ण केंद्र के रूप में रहा है।  बिहार में एतिहासिक युग का आरम्भ उत्तर वैदिक का से जुड़ा है।  छठी शताब्दी ई० पूर्व में बौद्ध धर्म और धर्म के उदगम – स्त्रोत के रूप में बिहार ने संसार को शांति एवं अहिंसा का सन्देश दिया। नन्द शासकों द्वारा प्रस्तुत नींव पर मौर्यों ने एक कुशल केन्द्रीयकृत शासन प्रणाली का यहां निर्माण किया सम्राट।  सम्राट अशोक ने पहली बार एक कल्याणकारी राज्य का आदर्श प्रस्तुत किया।  गुप्तकाल में यह क्षेत्र विद्या का प्रसिद्ध केंद्र बनाया जिसे चित्रकला एवं मूर्तिकला की अंगूठी प्रगति भी इस युग की विशेषता है। मध्यकालीन बिहार सत्ता के विरुद्ध अफगानी की चुनौती का केंद्र रहा। महान अफगान शासन की कर्मभूमि बिहार में ही थी।

सत्रहवों शताब्दी में मुगलों के अधीन विकसित अन्तराष्ट्रीय व्यपार का एक समृद्ध केंद्र बिहार था।बिहार में ही सिक्खों के दसवें और अंतिम गुरु श्री गोविंद  सिंह जी का जन्म हुआ।  बिहार की  इसी भूमि पर महान सूफी संतो ने प्रेम , बंधुत्व , सदभाव  और धार्मिक सहिष्णुता के उपदेश दिए।

आधुनिक काल में बंगाल एवं बिहार भारत में ब्रिटिश सत्ता के उदय का आरंभिक केंद्र रहे।  ब्रिटिश सत्ता के विकाश के क्रम में बक्सर का निर्णायक युद्ध बिहार में ही लड़ा गया।  ब्रिटिश सत्ता को  पहली सशक्त चुनौती देनेवाला जन – आंदोलन , बहावी आंदोलन , बुहार में सिगठित हुआ।  1857  में बाबू कुंवर सिंह और पीरअली जैसे देशभक्तों ने ब्रिटिश सत्ता को यहां ललकारा।  गाँधी जी ने चम्पारण में पहली बार सत्याग्रह  का सफल प्रयोग भारत ने जन आंदोलन के हथियार के रूप में 1917 में किया।  स्वतंत्र भारत का प्रथम राष्ट्रपति भूमि ने प्रदान किया और लोगनायक जयप्रकाश  नारायण की सम्पूर्ण क्रांति की कल्पना इसी क्षेत्र में व्यापक जन – आंदोलन  का प्रमाण स्रोत रही।

स्रोत

  • बिहार के इतिहास के अध्ययन -संबंधी स्रोत अनेक है। पुरातात्विक सामग्री भी है और साहित्यक भी।  पूर्व ऐतिहासिक युग के लिए मुंगेर , चिरांद ( सारण ) चेचर ( वैशाली ) , सोनपुर एवं मनेर से ताम्र – प्रस्तुर युगीन वस्तुए और मृदभांड उपलब्ध है। प्राचीन काल के लिए मौर्यकालीन अभिलेख, लौरिया-नंदनगढ़, लोरिया- अरेराज, रमपुरवा आदि  स्थानों से प्राप्त हुए  है।  कांफी मात्रा में सिक्के भी इस क्षेत्र में मिले है। राजगीर, नॉलेंदाी, पाटलीपुत्र (पटना) और बराबर पहाड़ियों में स्थित प्रमुख स्मारक भी पुरातात्विक स्रोतों, के महत्त्वपूर्ण उदाहरण हैं ।
  • साहित्यिक रचनाओं में आठवीं शताब्दी शतपथ ब्राह्मण परवर्ती काल के विभिन्‍न पुराण, रामायण और महाभारत, बौद्ध रचनाओं . में अंगुत्तर निकाय, दीघ निकाय, विनयपिटक ; जैन रचना भगवती सूत्र आदि धार्मिक रचनाएँ कौटिल्य की रचना अर्थशास्त्र और गुप्तकालीन साहित्यिक रचनाएँ भी बिहार के प्राचीन इतिहास की जानकारी प्राप्त करने में सहायक हैं । मध्यकाल के लिए मिन्‍हाज की. तबकातें नासिरी, इखत्सान देहलवी कौ बसांतीनुल उन्स, शेख कबीर की अफेसीनाएं शाहाँ,  गुलाम हुसैन सलीम की रियाज-उस्‌-सलातीन, गुलाम हुसैन तबातबाई की सीयर-उल-मुताखेरीन, आदि बिहार से सम्बद्ध जानकारी के विशिष्ट स्रोत हैं । इतिहास की कुछ रचनाएँ बिहार के लिए भी स्त्रोत के रूप में महत्त्वपूर्ण हैं । इनमें मिन्हाज की तबकाते नासिरी, जियाउद्दीन बरनी की तारीखे फीरोजशाही, अबुल फजल का अकबरनामा, बाबर की तुजुकें बाबरी एवं मिर्जा नाथन की बहारिस्ताने गैबी ,उल्लेखनीय है । फारसी, भाषा में मुल्ला तकीयां, अबुल लतीफ, मोहम्मद सादिक और बहबहानी के ‘वृतांत अत्यंत महत्वपूर्ण हैं । यूरोपीय ने अपने यात्रा  वृतांतों में बिहार का वर्णन किया है । उत्तरी बिहार के मिथिला क्षेत्र के इतिहास के अनेक स्रोत संस्कृत और मैथिली भाषा  में उपलब्ध हैं । विद्यापति की रचनाएँ कोर्तिलता,कीर्तिपताका और ज्योतिश्वर वर्णरत्नाकर एवं चंद्रेशवर-की ‘रजनीरत्नाकर इनमें उल्लेखनीय हैं। मध्यकालीन बिहार के लिए अभिलेख, स्मारक, सिक्के, चित्र और सामान्य उपयोग की अनेक वस्तुएँ भी सपग्रहालेयों में सुरक्षित हैं जो तत्कालीन परिस्थितियों  के अध्ययन में सहांयक है। आधुनिक बिहार के इतिहास के अध्ययन के लिए भी विस्तृत एवं विविध स्रोत-सामग्री है। District Gazetteer , Land Survery And Settlement Re-Port आदि प्रमुख हैं । । बिहार से प्रकाशिति होने वाले अनेक समाचार-पत्र ,पत्रिकाएँ और साहित्यिक कृतियाँ जो विभिन्‍न भाषाओं में उपलब्ध हैं, समसामयिक घटनाओं की जानकारी देने में सहायक हैं । स्वयंसेवी संस्थाओं, शैक्षिक केन्द्रों, और अन्य संस्थाओं के कागजात भी ऐतिहासिक स्रोत के रूप में प्रयोग किए जा सकते हैं। निकट-अंतीत के लिए विशेषकर स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास को जानने के लिए साक्षात्कार द्वारा भी जानकारी प्राप्त की गई है । इस प्रकार ऐतिहासिक स्रोत प्रचुर  मात्रा में उपलब्ध हैं जो बिहार्‌ के संबंध नें हमारी जानकारी को समृद्ध बनाते हैं ।

पूर्व ऐतिहासिक बिहार

 

  • पूर्व-ऐतिहासिक युग का आरंभ
  • संसार के विभिन्‍न भागों में अलग-अलग समय में हुआ
  • इसके काल-क्रम के निर्धारण में भी एकरूपता. नहीं है

इस आरंभिक चरण  के  प्रस्तर युग ( Stone Age  ) कहते हैं क्यों कि उस समय के आदिमानव के जीवन और क्रिया-कलाप के साक्ष्य पत्थर के बने. हथियारों और औजारों के रूप में मिलते हैं । प्रस्तर-युग को तीन चरणों में पुन: विभाजित किया जाता है ; प्राचीन प्रस्तर युग, मध्य प्रस्तर युग और नव प्रस्तर युग ।

  • प्राचीन प्रस्तर युग में पत्थर के टुकड़ों का उपयोग हथियार के रूप में किया जाता था। इनका उपयोग जानवरों का शिकार करने के लिए होता था। उस समय के आदिमानव का भोजन कंद – मूल और पशुओं का मांस था। इस कल के जुड़े हथियारों में पत्थर के चाकू कुल्हाड़ियों के फल और खुर्पी आदि शामिल है। इसके अवसेस मुंगेर और नालंदा जिला से प्राप्त हुआ है।
  • मध्य प्रस्तर युग में हथियारों के साथ औजाएँ के  नमूने भी मिलते हैं क्योंकि उन समय तक आदि–मानव ने पत्थरों के उपयोग में अधिक प्रवीणता प्राप्त कर ली थी । इस काल के हथियार और औजार छोटे पत्थरों को बने हैं ।

निव-प्रस्तर युग के अवशेष मैदानी क्षेत्रों में स्थित जगहों से प्राप्त हुए हैं । इनमें चिरांद (सारण) चेचर अथवा श्वेतपुर (वैशाली) , सेनुआर (रोहतास) , मनेर (पटना ) प्रमुख केन्द्र हैं । यहाँ से ना केवल पत्थर के बने अत्यंत ( microlith ) बल्कि हड्डी  से बने औजार और हथियार भी प्राप्त हुए हैं । यहाँ से प्राप्त सामग्री आदि मानव के जीवन के संबंध में विस्तृत जानकारी तो प्रदान नहीं करती, मगर इतना संकेए अवश्य मिलता है कि जीवन-शैली में अब कुछ निर्णायक परिवर्तन आये । जंगलों और पहाड़ियों के बीच रहने के बजाय अब मैदानी क्षेत्रों में निवास का क्रम प्रारंम हुआ । कृषि का आरंभिक विकास भी हुआ । प्रस्तर युग की जानकारी का एक अन्य महत्वपूर्ण स्रोत गुफा-चित्र  हैं । बिहार में कैमूर की पहाड़ियों, नवादा और जमुई से ऐसे चित्र प्राप्त हुए हैं । । इन चित्रों में प्राकृतिक वस्तुओं के साथ मानव-गतिविधियों जैसे शिकार, नृत्य, आदि के भी दुश्य॑ देखने को मिलते हैं । नव-प्रस्तुत युग का अंत होते-होते मनुष्यों ने ताँबै का उपयोग आरंभ कर दिया था। इस कोल को ताम्र-प्रस्तर ( chalcolithic ) युग कहा नाता है और इसकी अवधि 3000 से 1500 ई० पू० मानी जाती है।  भारत में लोहे का उपयोग संभवतः 1000 ई० पू० में आरम्भ हुआ।  ताम्र – प्रस्तर युग में भारतीय उपमहाद्वीप की पहली विकसित सभ्यता अर्थात सिंध – घाटी संभ्यता का इतिहास मिलता है।