प्राचीन बिहार

छठी शताब्दी ई० पू० में उत्तर भारत में विशाल, संगठित राज्यों का अभ्युदंय हुआ। बौद्ध रचनाओं में सोलह महाजनपदों और लगभग दस गणराज्यों की इस काल में चर्चा मिलती है । इनमें तीन महाजनपद, अंग, मगध और लिच्छवी गणराज्य बिहार के क्षेत्र में स्थित थे । इन पर विस्तृत जानकारी अगुत्तरनिकाय में मिलती हैं। लिच्छवियों विभिन्न गणरान्यों का महासंघ था। इसकी इसकी सीमाएं वर्तमान वैशाली और मुजफ्फरपुर जिलों तक फैली हुयी थी इसकी राजधानी वैशाली थी । अंग का रॉज्य वर्तमान मुंगेर और भागलपुर जिलों के क्षेत्र में फैला था । इसकी राजधानी चम्पा थी। मगध के अधीन वर्तमान पटना , नालंदा और गया जिलों के क्षेत्र थे।  इसकी राजधानी गिरिब्रज मगध इस क्षेत्र का सर्वाधिक शब्तिशाली राज्य बन गया और शेष राज्यों पर उसका अधिकार हो गया।

मगध साम्राज्य का उत्कर्ष :- मगध राज्य के आरंभिक इतिहास की चर्चा महाभारत में है।  गंगा के उत्तर विदेह राज्य और दक्षिण की ओर मगध राज्य का उल्लेख महाभारत में है। इसमें मगध के शासक जरासिंघ का उल्लेख है , जिसे भीम ने दुंद – युद्ध में पराजित किया था। छठी शताब्दी ई०पू० के पश्चात मगध की राज नैतिक स्थिति सुदृढ़ होने लगी। छठी शताब्दी ई०पू० के पश्चात मगध की राज नैतिक स्थिति सुदृढ़ होने लगी। इसमें दो शासकों की देन निर्णायक थी , बिम्बिसार और अजातसूत्र।  दोनों हरयंक वंश के शासक थे और महात्मा बुद्ध समकालीन थे।  महावंश के अनुसार बिम्बिसार ने पंद्रह वर्ष की आयु में सिहांसन प्राप्त किया। उसी के अधीन मगध का साम्राज्य – विस्तार आरम्भ हुआ। अपनी राजनीतिक स्थिति सुदृढ़ करने के लिए उसने वैवाहिक संबंध की निति अपनाई।  उसकी पहली पत्नी कोशला की राजकुमारी थी इस विवाह से दहेज के रूप में बिम्बसार को कशी का क्षेत्र प्राप्त हुआ।  । उसकी दूसरी पत्नी चेल्लना, वैशाली के लिच्छवी शासक परिवार की राजकुमारी थी । इस विवाह से बिम्बिसार के संबंध, वज्जियों के साथ सुदृढ़ हुए । उसकी तीसरी पत्नी पंजाब की मद्र राजकुमारी थी। बिम्बिसार ने अपने पूर्वी पड़ोसी अंग॑ के राज्य पर चढ़ाई कर वहां के शासक ब्रह्मदत्त का वध कर दिया । उसका युद्ध अवन्ती के शासक चंद्र प्रद्योत मंहासिने के साथ भी ।

 

 

हुआ अंततः दोनों ने मैत्री कर्‌ ली, और, प्रद्योत के  उपचार के लिए बिम्बिसार ने अपने चिकित्सक जीवक को. उज्जैन भेजा बिम्बिसार के जीवन का, अंत दुःखद परिस्थितियों में हुआ । उसके महत्वाकांक्षी पुत्र अजातशत्रु ने सिंहासन पुर अधिकार करने के लिए अपने पिता को बंदी बना लिया । बौद्ध स्त्रोतों में अजातशत्रु को अपने पिता का हत्यारा कहा गया है परन्तु जैन स्रोत इससे सहमत नहीं । अजातशत्रु दो महत्त्वपूर्ण युद्ध लड़े । पहला युद्ध कोशल के शासक प्रसेनजीत के साथ हुआ। अजातशंत्रु ने प्रसेनजीत को पराजित कर संधि पर बाध्य  किया। काशी का क्षेत्र मगध को पुनः प्राप्त हुआ और कोशल की राजकुमारी वजिरा का विवाह अंजातशत्रु के -साथ हुआ । दूसरा  युद्ध वज्जि गणराज्य के साथ हुआ । इसके लिए गंगा, गंडक और -सोन नदियों के संगम पर एक सैनिक छावनी का  निर्माण हुआ ! ताकि वहाँ से वैशाली पर अभियान में सुविधा हो । यह क्षेत्र पाटलिग्राम कहलाया जो बाद में पाटलिपुत्र के नाम से विख्यात हुआ और मगध के विस्तृत साम्राज्य की राजधानी बना । अजातशत्रु का उत्तराधिकारी उदयभद्र या उदयिन था । उदयिन ने पाटलिपुत्र को अपनी राजधानी बनाया । इसी के साथ पाटलिपुत्र उत्कर्ष आरंभ हुआ । उदयिन के उत्तराधिकारी दुर्बल और अयोग्य थे । महावंश के अनुसार ये संभी पितृहंता भी थे । अत: उनसे तंग आकर प्रजा ने उनकी सत्ता का अंत केर दियां। इस वंश की अंतिम शासक नागदशर्के था । शिशुनाग द्वारा मगध की राजधानी वैशाली में स्थापित की गयी । उसकी सर्वश्रेष्ठ सफलता अवन्ती के राज्य पर विजय थी । शिशुनाग वत्स और कोशल के राज्यों पर भी विजय प्राप्त की । उसके उत्तराधिकारी कालाशोक के अधीन वैशाली में द्वितीय बौद्ध संगतिं का आयोजन हुआ। तंत्पश्चात्‌ महापद्यनंद ने सत्ता पर अधिकार लिया (344 ई० पूं०) महापद्मनंद को निम्न मूल का कंहा जाता है, मगर वह एक महान विजेता औरयोग्य शासक था। उसने एकारट की उपाधि धारण की, कलिंग पर वेजय प्राप्त की उसका अंतिम धनानंद था जिसके शासनकोल में सिकंदर का भारत पर आक्रमण हुआ । नंद वंश के सैन्य बल, विशेषकर हस्तिसेना, के कारण ही सिकंदर के सैनिकों ने व्यास नदी का तट पार करने से इंकार कर दिया धनानंद एक अत्याचारी शासक था और प्रजा में अलोकेप्रिय । सिकंदर की वापसी के बाद व्याप्त राजनैतिक अस्थिरता का लाभ उठाकर चन्द्रगुप्त मौर्य ने धनानंद का

वध कर पाटलिपुत्रे पर अधिकार कर लिया और मगध साम्राज्य पर मौर्य वंश की स्थापित हो गयी।

मगध राज्य के उत्कर्ष के कई कारण थे।

  • इस क्षेत्र में लोहे की अनेक खानें थीं जो अच्छे हथियारों के निर्माण में सहायक थीं ।
  • नये अस्त्र-शस्त्र का विकास भी हो रहा था ।मिगध का मध्य-गांगेयं घाटी के केन्द्र में था । यह क्षेत्र अत्यधिक उर्वर और समृद्ध था । कृषि की संपन्न अवस्था के कारण आर्थिक संसाधनों की प्राप्ति भी आसान थीं इस क्षेत्र में व्यापार भी समृद्ध अवस्था में था ।
  • मगध के क्षेत्र में हाथी भी प्रचुर मात्रा में उपलब्ध थे जिनकी सहायता से विरोधी शासकों नगरों पर अधिकार आसान था ।

मौर्य साम्राज्य (320-185 ई० पू०)-मौर्य साम्राज्य के संस्थापक चन्द्रगुप्त मौर्य (320-298 ई० पू०) चेन्द्रगुप्त ने  मगधथ पर अधिकार न के पश्चात अपने साम्राज्य का विस्तार किया । उसने पश्चिम भारत में और दकन में कर्नाटक के उत्तरी भाग तक अपनी सत्ता स्थापित की । पश्चिंमोत्तर सीमांत में उसने यूनानी सेनानायंक सेल्यूकस निकेटर का सामना किया । अंततः सेल्यूकस को काबुल, कंधार, हिरात, बलूचिस्तान और मकरान के क्षेत्र चन्द्रगुप्त के. हवाले करने पड़े । उसकी

एक पुत्री का विवाह भी चन्द्रगुप्त के साथ हुआ । 315 ई० पू० में सेल्यूकस का दूत मेगास्थनीज चन्द्रगुप्त के दरबार में पाटलीपुत्र आया । उसने अपने अनुभवों को  अपने यात्रा वृतान्त इंडिका में लिखा है ।

चन्द्रगुप्त ने भारतीय उप-महाद्वीप में विकसित पहली देशव्यापी शासन-प्रणली का भी निर्माण किया था । न्याय प्रशासन केन्द्रीयकृत और कठोर था । कंरों का बाहुल्यें था और आम जनता का पंजीकरण अनिवार्य था । प्रशासन का कन्द्र-बिन्दु सम्राट था । सेना सुसंगठित और शक्तिशाली थी और अर्थव्यवस्था पर राज्य का पूरा नियंत्रण था । यह सभी सूचनाएँ मुख्यतः कौटिल्य की रचना अर्थशास्त्र पर आधारित है। मेगास्थनीज की इंडिका में राजधानी पाटलिपुत्र के नगर-प्रशासन की विस्तृत चर्चा मिलती है । नगर-प्रशासन॑ की देख-रेख करने के लिए छः समितियों की चर्चा भी इसमें मिलती है । इसे प्रशासनिक व्यवस्था को उदार और कल्याणकारी स्वरूप अशोक ने दिया । उसने जनहित समाज में

सदभाव को प्रोत्साहन दिया । उसने इस उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए धम्म महामातू नामक अधिकारी नियुक्त किये और स्वयं धम्म यात्राँ आयोजित कीं । उसके अभिलेख भी मौर्य प्रशासन के संबंध में विस्तृत जानकारी प्रदान करते हैं | चन्द्रगुप्त के उत्तराधिकारी बिन्दुसार था। मौर्यवंश का महानदम शासक अशोक  था। उसने आरंन में साम्राज्य विस्तार को नीति अपनायीं। परन्तु 261 ई० पूं० में कलिंग युद्ध के भीषण नर-संहार ओर रक्‍तपात ने उसे असुर विजय त्याग कर धम्म विजय की नीति अपनाने की प्रेरणा दी । उसने अपने दूत श्रीलंका, परिचिम एशिया, मध्य एशिया और यूनानियों द्वारा शासित राज्यों में भेजे । इनके माध्यम से उसने शांति, संदूभाव और सहअस्तित्व की भावना का प्रचार किया

ओर कल्याणकारी कार्यों में रूची ली । उसका उद्देश्य इन क्षेत्रों की सैनिक विजय न कर इन पर अपना कूटनीतिक प्रभाव बनाये रखना था। अशोक ने बौद्ध धर्म का आलिंगन किया । उसने बौद्ध धर्म को संरक्षण और प्रश्न दिया । उसके द्वारा पाटलिपुत्र में तृतीय बौद्ध संगति का आयोजन हुआं । इसी समय बौद्ध धर्म के थेरावाद संप्रदाय का उदय हुआ । उसने श्रीलंका, नेपाल, बर्मा (मयन्मार) एवं अन्य देशों में बौद्ध धर्म का प्रचार हेतु प्रतिनिधि मंडल भेजे । इस क्रम में

भारतीय संस्कृति का प्रसार भी विदेशों में हुआ । अपने पुत्र महेन्द्र और पुत्री संघमित्रा नो उसने श्रीलंका भेजा । अशोक ने जन-कल्याण की नीति अपनायी । उसने विभिन्‍न वर्गों को आर्थिक अनुदान देने और अन्य सुविधायें प्रदान करने के लिए धम्म-महामात्तों की नियुक्ति की । न्याय-प्रशासन सुव्यवस्थित रखने के लिए राजूक नामक अधिकारी बहाल किये । पशु-वध पर उसने रोक लगायी, धम्म की नीति का प्रतिपादन कर समाज शांति, सदूभाव तथा सहिष्णुता पर बल दिया और व्यक्ति के जीवन में उच्च नैतिक आदर्शों के विकास को प्रोत्साहन दिया । इस प्रकार अशोक ने सर्वप्रथम एक कल्याणकारी राज्य का आदर्श प्रस्तुत किया और समस्त प्रजा के बीच सद्भाव और सदाचारं को बढ़ावा दिया । अशोक की आलोचना कुछ इतिहासकारों ने इस आधार पर की हैं कि उसकी नीति से मौर्य साम्राज्य पतन कीं पर हुआ । इनके अनुसार अशोक की शांतिप्रिय नीति से मौर्य साम्राज्य के सेन्यबल को नष्ट कर दिया, जबकि बौद्ध धर्म के प्रति उसके झुकाव ने ब्राह्मणों को रुष्ट कर दिया । यह दोनों कारण मौर्य साम्राज्य के पतन में सहायक हुए । मौर्य साम्राज्य का पतन कुछ अन्य कारणों से प्रभावित था । अशोक के उत्तराधिकारियों की अयोग्यता, साम्राज्य की वृहत क्षेत्र, केन्द्रीय प्रशासन की कमजोरी, प्रांतपतियों के अत्याचार और इनके विरुद्ध विद्रोह आदि  के कारण साम्राज्य का पतन होने लगा । 185 ई० पू०  अंतिम मौर्य  शासक बृहद्रथ की हत्या कर पुष्यमित्र शुंग नें राजसत्ता पर अधिकार कर लियाँ |

मौर्योत्तर बिहार:- मौर्य साम्राज्य के पतनोपरान्त मगध के इतिहास का एक गौरवपूर्ण युग समाप्त हुआ । पुष्यमित्र शुंग के अधीन केवल मंध्य गांगेय घाटी आह चंबल नदी से सम्बद्ध क्षेत्र रह गये थे । बैक्ट्रिया के यूनानी शासकों ने साम्राज्य पश्चिमोत्तर क्षेत्रों पर अधिकार कर लिया । कलिंग के शासक खारवेल ने भी संभवत: पहली शताब्दी ई० पू० में मगध पर आक्रमण किया । पुष्यमित्र ने परिस्थिति पर कुछ हद तक नियंत्र किया | उसने यवनों के आक्रमण को विफल बनाया और अश्वमेथ-यज्ञ का आयोजन किया । उसने ब्राह्मण धर्म को प्रश्नय दिया और बौद्धों के प्रति उत्पीडक और आक्रामक व्यवहार किया । उसने बड़ी संख्या में बौद्ध भिक्षुओं की हत्या और  उनके इस स्तूपों और विहारों का विनाश किया । अंतिम शासक देवभूति को हत्या कर उसके सचिव बासुदेव ने कण्व वश की नींव रखीं। कण्व वंश के अतिम शासक को. आंध्र-सातवाहनों ने अपदस्थ कर दिया । प्रथम शताब्दी ई० में कुषाणों का अभियान हुआ। कुषाणकालीन अवशेष भी बिहार में अनेक स्थानों से प्राप्त हुए हैं ।

गुप्तकालीन बिहार:- बिहार के गौरव का पुनरोद्धार गुप्त वंश के अधीन चौथी शताब्दी इं० में हुआ । चंद्रगुप्त ने एक लिच्छवी राजकुमारी कुमार देवी से विवाह किया । इस कारण बिहार के क्षेत्र पर भी उसका नियंत्रण बना । चन्द्रगुप्त ने पाटलीपुत्र में महाराजाधिराज की उपाधि धारण की । उसी ने गुप्त सिंवत का भी इसी समय प्रचलन किया । चन्द्रगुप्त की मृत्यु के बाद उसका पुत्र समुद्रगुप्त शासक बना । वह एक महान विजेता था जिसने गुप्त साम्राज्य का विस्तार लगभग समस्त उपमहाद्वीप में किया । उसे भारत का नेपोलियन भी कहा जाता है । उसके इन अभियानों कौ चर्चा हरिसेन द्वारा रचित प्रयाग प्रशस्ती में मिलती है । सर्वप्रथम उसने गंगा-जमुना दोआब क्षेत्र के शासकों को पराजित कर उनके ज्यों को अपने साम्राज्य में मिला लिया । अंततः उसने शक और कु्षाण शासकों को पराजित किया जो पश्चिमी और पश्चिमोत्तर भारत में सत्तारढ़ थे । उसके उत्तराधिकारी चन्द्रगुप्त ii  विक्रमादित्य  ने सौराष्ट्र और मालवा के समृद्ध क्षेत्रों को जीतकर गुप्त साम्राज्य में मिलाया । उसने पश्चिमी दक्कन के वाकाटक शासकों से वैवाहिक संबंधों द्वारा भी अपनी स्थिति सुदृढ़ की । अपनी पुत्री प्रभादेवी का विवाह उसने वाकाटक वंश में किया । चन्द्रगुप्त ii का शासनकाल (375-412 ई०) गुप्त साम्राज्य के चरमोत्कर्ष का काल रहा । चन्द्रगुप्त ii के उत्तराधिकारियों को विदेशी आक्रमणों का सामना करना पड़ा । स्कदगुप्त के शासनकाल तक हूणों के आक्रमण नियंत्रित रहे, मगर हुणों द्वारा गुप्त साम्राज्य के क्षेत्रों पर अधिकार किया जाने लगा। 485 ई० तक हूण मध्य  तक फैल गए थे। बाद में हुण शासक मिहिरकुल ने भी पाटलिपुत्र पर चढ़ाई  नरसिंहगुप्त बालादित्य को पराजित किया मालवा के शासक यशोवर्मन ने हूणों से संघर्ष किया और गुप्त शासकों, संत्तों को भी चुनौती दी। छठी शताब्दी इं० के मध्य तक मगध के क्षेत्र पर गुप्तवंश का नियंत्रण था जबकि पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार के कुछ क्षेत्रों  मौखरी वंश की सत्ता स्थापित हो गयी थी। मौर्य-साम्राज्य के पतनोपरान्त, लगभग पाँच शताब्दियों के अंतराल पर शासकों ने पुन: भारत में एक विशाल साम्राज्य का पुनर्गठन किया, मगर उनके । साम्राज्य मौर्य साम्राज्य की भांति केन्द्रीयकृत नहीं था | सामंतों ने गुप्तवंश की सत्ता को चुनौती दी और अपना स्वतंत्र अस्तित्व स्थापित लिया । साम्राज्य में सैन्य बल की कमजोरी और. आर्थिक संकट की समस्याओं  भी पतन की इस प्रक्रिया में महत्त्वपूर्ण योगदान किया ।

मगध के परवर्ती गुप्त शासक:- छठी शताब्दी ई० में बिहार के कुछ भागों परवर्ती गुप्त शासकों के शासन की जानकारी कुछ अभिलेखों से मिलती हैं जिनकी प्राप्ति गया और शाहाबाद जिलों के क्षेत्र में हुई-है । इस वंश का संस्थापक कृषगुप्त था । इस वश क एक शासक कुमारगुप्त iii  द्वारा प्रयाग तक संत्ता-विस्तार करने और मौखरी शासक को पराजित करने के संबंध में जानकारी मिलती है । उसके अराधिकारी दामोदरगुप्त को मखौरी शासक ने पराजित कर मगध के अधिकांश भाग  को हस्तगत कर लिया । इसी बीच गौड़ (बंगाल) के शासक, शशांक के अभियान भी इस क्षेत्र में हुए । शशांक एक क्रूर और धर्माध शासक था जिसने बौद्धों के धार्मिक स्थलों को बुरी तरह नष्ट किया और बोध गया में महाबोधी वृक्ष को भी क्षति पहुँचाई । दामोदरगुप्त के पौत्र, देवगुप्त ने शशांक सें गठबंधन करे कन्नौज के खररी शासक, ग्रहवर्मन के विरुद्ध कार्रवाई की । शशांक नें ग्रहवर्मन का वंध भी किया । इसके प्रतिशोध में राज्यवर्धन ने देवगुप्त को पराजित कर उसका बंध कर दिया । इस प्रकार गुप्त साम्राज्य के पतन से हर्ष के शासनकाल के पहले तक बिहार इतिहास नितांत संघर्ष का साक्षी रहा ।

सातवीं शताब्दी ई० के आरंभ में जब हर्षवर्द्धन ने उत्तरी भारत में साप्राज्य-विस्तार किया तो बिहार के कुछ भाग उसके नियंत्रण में आये । उसने परवर्ती गुप्त शासकों माधवगुप्त को मगध के क्षेत्र में अपना प्रतिनिधि बनाया ताकि शशांक द्वारा किसी आक्रमण कार्रवाई का निदान आसानी से कर सके । हर्ष की मृत्योपरांत बिहार में पुनः अराजकता फैल गयी । हर्षकॉलीन चीनी यात्री, युआन च्वांग  के समीप जब इस क्षेत्र में आया तो पार्टलिपुत्र का नगर ध्वस्त हो चुका था।

पूर्व मध्यकालीन बिहार

पालकालीन बिहार :- हर्ष के साम्रज्य के विघटन के बाद आठवीं शताब्दी के मध्य में पूर्वी भारत में पालंवश का अभ्युदय हुआ । पालंवश का संस्था गोपाल था जिसने शीघ्र ही बिहार में अपना शासन विस्तृत कर दिया। धर्म नें आठवीं शतान्दी के अंतिम चतुर्थाश में  कन्नौज पर आक्रमण किया। उसकी पुत्र  देव  ने भी विस्तारवादी नीतिं अपनाई उसके समय में दक्षिणपूर्वी साथ भी मैत्रीपूर्ण संबंध रहे । उसेनें जावा के शासक बलपुत्रदेव के अनुरोध नालंदा में एक विहार की देखरेख के लिए पाँच गाँव अनुदान में दिये । बौद्ध देवपाल की मृत्यु के बाद पाल  वंश पतन आरंभ हुआ । मिहिरस्भोज और महेन्द्रपाल के शासनकाल में प्रतिहारों ने बिहार के अधिकांश क्षेत्रों पर अधिकार कर लिया ।

 

ग्यारहवीं शताब्दी में महिपाल के अधीन पाल वंश का पुर्नोदय हुआ।

 

मगर उसके उत्तराधिकारी कमजोर थे । इसका लाभ उठाकर बंगाल में कैवर्त शक्तिशाली हो गये और शासकों ने उत्तरी बिहार और बंगाल कुछ क्षेत्रों में अपना राज्य स्थापित कर लिये पालों की शक्ति मगध के कुछ भागों में सिमटकर रह गयी । रामपाल  मृत्योपरान्त, गहड्वालों ने भी बिहार में शाहाबाद और गया तक विस्तार कर लिये सेन शासकों, विजयसेन और बल्लालसेन ने भी अपनी संत्ता का विस्तार करते गया को पूर्व तक अपना नियंत्रण स्थापित करे लिया । अराजकता के इसी वाताव में तुर्कों के आक्रमण बिहार में बारहवीं शताब्दी के अंत तक आरंभ हो. गये गहड़वाल वंश के शासक गोविंदचन्द्र के मनेर ताम्रपत्र में तुरुष्कदण्ड दुल्विड नामक कर चर्चा मिलती है।

पाल शासक बौद्ध धर्मावलम्बी थे। उन्होंने बौद्ध शैक्षिक संस्थाओं को प्रश्रय विक्रमशिला- महाविहार की  स्थापना धर्मपाल  ने की उसी ने  नालंदा महाविहार को 200 ग्राम दान, स्वरूप दिए । ओदन्तपुरी और  जगदल के विश्वविद्यालय भी पाल शासनकाल में संगठित हुए । बख्तियार खिलजी के  अभियानों के बाद भी नालन्दा महाविहार में शिक्षा प्राप्ति के लिए बौद्ध भिक्षु धर्मस्विमिन्‌ तिब्बत से बिहार आया । शैलेन्द्र वंशीय शासक ने देवपाल से नालंदा में एक बौद्ध मंदिर के निर्माण की अनुमति प्राप्त की। कांस्य प्रतिमाओं के निर्माण में पाल युग सर्वश्रेष्ठ था। रामपाल के शासनकाल में  1097-98 तिरहुत के कर्नाट राज्य  का उदय हुआ।  इसका संस्थापक नान्यदेव था। इसकी राजधानी सिमरावगढ़ थी जो अब नेपाल तराई के पूर्वोत्तर क्षेत्र में स्थित है।  कर्नातवंशीय शासक नरसिंगदेव का सघर्ष बंगाल सेन शासकों के साथ हो रहा।इसी कारण नरसिंहदेव द्वारा तुर्कों के साथ सहयोग किया गया।  जब  बख्त्यार खिलजी के अभियान बिहार के क्षेत्र में हुए तो नरसिंघ देव ने भी उसकी नजराना या भेटराशी देकर संतुस्ट किया। उस समय तिरहुत पर मानसिंह देव का शासन था।  कर्नाट शासकों के साथ दिल्ली के सुल्तानों का सम्पर्क निरंतर बना रहा था। इस क्षेत्र की विजय अंततः गया सुद्दीन तुगलक के बंगाल अभियान ( 1324 – 25 ) के क्रम में हुई।  उस समय तिरहुत का शासक हरीसिंघदेव था।  तुर्क सेना  आक्रमण का वह सामना न  कर सका और नेपाल की तराई कर गया।